|
तेईसवाँ अध्याय
परिणामोंका सार
अब हम ऋग्वेदमें आनेवाले अगिरस्-कथानककी, सभी सम्भव पहलुओंको लेकर तथा इसके मुख्य प्रतीकों सहित, समीपताके साथ परीक्षा कर चुके हैं और इसलिये इस स्थितिमें हैं कि इससे हमने जो परिणाम निकाले हैं उन्हें यहाँ निश्चयात्मकताके साथ संक्षेपसे वर्णित कर दें । जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ, अगिरसोंका कथानक तथा वृत्रकी गाथा-थे दो वेदके आधारभूत रूपक हैं, ये सारे वेदमें पाये जाते हैं, और बार-बार आते हैं, ये सूक्तोंमें इस रूपमें आते हैं मानो ये प्रतीकात्मक अलंकारवर्णनाके दो आपसमें घनिष्ठतया जुड़े हुए मुख्य तार हैं और इन्हींके चारों ओर अवशिष्ट सारा वैदिक प्रतीकवाद बानेकी तरह ओतप्रोत है । यही नहीं कि ये इसके केंद्रभूत विचार हैं बल्कि ये इस प्राचीन रचनाके मुख्य स्तम्भ हैं । जब हम इन दो प्रतीकात्मक रूपकोंके अभिप्रायको निश्चित कर लेते हैं तो मानो हमने सारी ही ऋक्-संहिताका अभिप्राय निश्चित कर लिया । क्योंकि यदि वृत्र और जल बादल और वर्षाके तथा पञ्जाबकी सात नदियोंके प्रवाहित हो पड़नेके प्रतीक हैं और यदि अगिरस् भौतिक उषाके लानेवाले हैं तो वेद प्राकृतिक घटनाओंका एक प्रतीकवाद है जिसमें इन प्राकृतिक घटनाओंको देवों और ऋषियों तथा उपद्रवी दानवोंका सजीव रूप देकर वर्णित किया गया है । और यदि 'वृत्र' और 'वल' द्राविड़ देवता हैं तथा 'पणि' और 'वृत्रा: ' मानवीय शत्रु हैं तो वेद द्राविड़ भारतपर प्रकृतिपूजक जंगलियों द्वारा किये गये आक्रमणका एक कवितामय तथा कथात्मक उपाख्यान है । किन्तु इस सबके विपरीत यदि वेद प्रकाश और अन्धकार, सत्य और अनृत, ज्ञान और अज्ञान, मृत्यु और अमरताकी आध्यात्मिक शक्तियोंके मध्य होनेवाले संघर्षका एक प्रतीकवाद है तो यही असली वेद है, यही सम्पूर्ण वेदका वास्तविक आशय है हमने यह परिणाम निकाला है कि अगिरस् ऋषि उषाके लानेवाले हैं, सूर्यको अन्धकारमेंसे छुड़ानेवाले हैं, पर ये उषा सूर्य अन्धकार प्रतीकरूप हैं जो आध्यात्मिक अर्थमें प्रयुक्त किये गये हैं । वेदका केन्द्रभूत विचार है अज्ञानके अन्धकारमेंसे सत्यकी विजय करना और साथ ही सत्यकी विजय ३२० द्वारा अमरताकी भी विजय कर लेना । क्योंकि वैदिक ऋतम् जहाँ मनो-वैज्ञानिक विचार है वहाँ आध्यात्मिक विचार भी है । यह 'ऋतम्' सत्ताका सत्य सत्, सत्य चैतन्य, सत्य आनन्द है जो इस शरीररूप पृथिवी, इस प्राणशक्तिरूप अन्तरिक्ष, इस मनरूप सामान्य आकाश या द्यौसे परे है । हमें इन सब स्तरोंको पार करके आगे आना है उस पराचेतन सत्यके उच्च स्तरमें पहुँच सकें जो देवोंका स्वकीय घर है और अमरत्वका मूल है । यही 'स्व:'का लोक है जिसतक पहुँचनेके लिये अंगिरसोंने अपनी आगे आनेवाली सन्ततियोंके लाभार्थ मार्ग ढूंढ़ा है ।
अंगिरस् एक साथ दोनों हैं, एक तो दिव्य द्रष्टा जो देवोंके विश्व-सम्बन्धी तथा मानवसम्बन्धी कार्योंमें सहायता करते हैं, और दूसरे उनके भूमिष्ठ प्रतिनिधि, पूर्वज पितर, जिन्होंने सर्वप्रथम वह ज्ञान पाया था जिसके वैदिक सूक्त गीत हैं' संस्मरण हैं और फिरसे नवीन रूपमें अनुभव करने योग्य सत्य हैं । सात दिव्य अगिरस् अग्निके पुत्र या अग्निकी शक्तियाँ है, द्रष्टा-संकल्पकी शक्तियाँ हैं और यह 'अग्नि' या 'द्रष्टा-संकल्प' है दिव्य शक्तिकी दिव्य ज्ञानसे उद्दीप्त वह ज्वाला जो विजयके लिये प्रज्यलित की जाती है । भृगुओंने तो पार्थिव सत्ताकी वृद्धियों (उपचयों ) में छिपी हुई इस ज्वालाको ढ़ूँढ़ा है, पर अगिरस् इस ज्यालाको यज्ञकी वेदीपर प्रज्वलित करते हैं .और यज्ञको यज्ञिय वर्षके काल-विभागोंमे लगातार जारी रखते हैं, जो काल-विभाग उस दिव्य प्रयासके काल-विभागोके प्रतीक हैं जिसके द्वारा सत्य का सूर्य अन्धकारमेंसे निकालकर पुन: प्राप्त किया जाता है । वे जो इस वर्षके नौ महीनोंतक यज्ञ करते हैं नवग्वा हैं, नौ गौओं या किरणोंके द्रष्टा हैं, जो सूर्यकी गौओंकी खोज आरंभ करते हैं और पणियोंके साथ युद्ध करनेके लिये इन्द्रको प्रयाणमें प्रवृत्त करते हैं । वे जो दस महीनोंतक यज्ञ करते हैं दशग्वा हैं, दस किरणोंके द्रष्टा हैं, जो इन्द्रके साथ पणियोकी गुफामें घुसते हैं और खोयी हुई गौएँ वापिस ले आते हैं ।
यज्ञ यह है कि मनुष्यके पास अपनी सत्तामें जो कुछ है उसे वह उच्चतर या दिव्य प्रकृतिको अर्पित् कर के और इस यज्ञका फल यह होता है कि उसका मनुष्यत्व देवोंके मुक्तहस्त दानके द्वारा और अधिक समृद्ध हो जाता है । संपत्ति जो इस प्रकार यज्ञ करनेसे प्राप्त होती है आध्यात्मिक ऐश्वर्य, समृद्धि, आनन्दकी अवस्थासे निर्मित होती है और यह अवस्था स्वयं यात्रामें सहायक होनेवाली एक शक्ति है और युद्धकी एक शक्ति है । क्योंकि यज्ञ यात्रा है, एक प्रगति यज्ञ स्वयं यात्रा करता ३२१ है जो उसकी यात्रा 'अग्नि'को नेता बनाकर दिव्य मार्गसे देवोंके प्रति होती है और 'स्वः''के दिव्य लोकके प्रति अंगिरस पितरोंका आरोहण इसी यात्राका आदर्श रूप (नमूना ) है । अगिरस्-पितरोंकी यह आदर्श यज्ञ-यात्रा एक युद्ध भी है, क्योंकि पणि, वुत्र तथा पाप और अनृतकी अन्य. शक्तियाँ इस यात्राका विरोध किया करतीं हैं और इन्द्र तथा अगिरस् ऋषियोंकी पणियोंके साथ लडाई इस युद्धका एक मुख्य कथांग है ।
यज्ञके प्रधान अंग है दिव्य ज्वालाको प्रज्वलित करना, 'घृत'की तथा सोमरसकी हवि देना और पवित्र शब्दका गान करना । स्तुति तथा हविके द्वारा देव प्रवृद्ध होते हैं, उनके लिये कहा गया है कि वे मनुष्यके अन्दर उत्पन्न होते हैं, रचे जाते हैं या अभिव्यक्त होते हैं तथा यहाँ अपनी वृद्धि और महत्तासे वे पृथिवी और द्यौको अर्थात् भौतिक और मानसिक सत्ताको इनका अधिक-से-अधिक जितना ग्रहणसामर्थ्य होता है उतना बढ़ा देते हैं और फिर, इन्हें अतिक्रान्त करके, अवसर आनेपर उच्चतर लोकों या स्तरोंकी रचना करते हैं । उच्चतर सत्ता दिव्य है, असीम है, जिसका प्रतीक है चमकीली गौ, असीम माता, अदिति; निम्न सत्ता उसके अन्धकारमय रूप दितिके अधीन है ।
यज्ञका लक्ष्य है उच्च या दिव्य सत्ताको जीतना और निम्न या मानवीय सत्ताको इस दिव्य सत्तासे युक्त कर देना तथा इसके नियम और सत्यके अधीन कर देना । यज्ञका 'घृत' चमकीली गौंकी देन है, यह 'घृत' मानवीय मनके अन्दर सौर प्रकाशकी निर्मलता या चमक है । 'सोमरस' है सत्ताका अमृतरूप आनन्द जो जलोंमें और सोम-नामक पौधे (लता ) में निगूढ़ रहता है और देवों तथा मनुष्यों द्वारा पान करनेके लिये निचोड़ा जाता है । शब्द है अन्तःप्रेरित वाणी जो सत्यके उस विचार-प्रकाशकों अभिव्यक्त करती है जो आत्मामेंसे उठता है, हृदयमें निर्मित होता है और मन द्वारा आकृति-युक्त होता है । 'अग्नि' घृतसे प्रवृद्ध होकर और 'इन्द्र' सोमकी प्रकाशमय शक्तिसे तथा आनन्दसे सबल और शब्द द्वारा प्रबुद्ध होकर, सूर्यकी गौओंको फिरसे पा लेनेमें अगिरसोंकी सहायता करता है ।
बृहस्पति सर्जनकारी शब्दका अधिपति है । यदि अग्नि प्रथम अंगिरा है, वह ज्वाला है जिससे अंगिरस् ऋषि पैदा हुए हैं तो बृहस्पति वह एक अंगिरा है जो सातमुखवाला अर्थात् प्रकाशकारी विचारकी सात किरणों-वाला और इस विचारको अभिव्यक्त करनेवाले सात शब्दोंवाला (एक अंगिरा ) है, जिसकी ये सात ऋषि (अंगिरस् ) उच्चारण-शक्तियाँ बने हैं । यह सत्यका सात सिरोंवाला अर्थात् पूर्ण विचार है जो मनुष्यके लिये यज्ञकी ३२२ लक्ष्यभूत पूर्ण आध्यात्मिक संपदाको जीतकर उसके लिये चौथे या दिव्य लोकको जीत लाता है । इसलिये अग्नि, इन्द्र, बृहस्पति, सोम सभी इस रूपमें वर्णित किये गये हैं कि ये सूर्यकी गौओंको जीत लानेवाले हैं और उन दस्युओंके विनाशक हैं जो उन गौओंको छिपा लेते हैं और मनुष्यके पास आनेसे रोकते हैं । सरस्वती भी, जो दिव्य शब्दकी धारा या सत्यकी अन्तःप्रेरणा है, दस्युओंका वध करनेवाली और चमकीली गौओंको जीतने-वाली है, उन गौओंको ढूंढ़ा है इन्द्रकी अग्रदूती सरमाने जो सूर्यकी या उषाकी एक देवी है और सत्यकी अन्तर्ज्ञानमयी शक्तिका प्रतीक मालूम होती है । उषा एक साथ दोनों है, स्वयं वह इस महान् विजयमें एक कार्यकर्त्री भी है और पूर्ण रूपमें उसका आगमन इस विजयका उज्ज्वल परिणाम है ।
उषा दिव्य अरुणोदय है, क्योंकि सूर्य जो उसके आगमनके बाद प्रकट होता है पराचेतन सत्यका सूर्य है; दिन जिसको वह सूर्य लाता है सत्यमय ज्ञानके अन्दर होनेवाला सत्यमय जीवनका दिन है, रात्रि जिसे वह विध्वस्त करता है अज्ञानकी रात्रि है जो अबतक उषाको अपने अन्दर छिपाये है । उषा स्वयं सत्य है, सूनृता है और सत्योंकी माता है । दिव्य उषाके इन सत्योंको उषाकी गौएँ, उषाके चमकीले पशु कहा गया है; जब कि सत्यके वेगवान् बलोंको जो उन गौओंके साथ-साथ रहते हैं और जीवनको अधिष्ठित करते हैं उषाके घोड़े कहा गया है । गौओं और घोड़ोंके इस प्रतीकके चारों ओर वैदिक प्रतीकवादका अधिकांश घूम रहा है, क्योंकि ये ही उन सम्पत्तियोंके मुख्य अंग हैं जिन्हें मनुष्यने देवोंसे पाना चाहा है । उषाकी गौओंको अन्धकारके अधिपति दानवोंने चुरा लिया है और ले जाकर गूढ़ अवचेतनाकी अपनी निम्नतर गुफामें छिपा दिया है । वे गौएँ ज्ञानकी ज्योतियाँ हैं, सत्यके विचार हैं (गावो मतय: ), जिन्हें उनकी इस कैदसे छुटकारा दिलाना है । उनके छुटकारेका अभिप्राय है दिव्य उषाकी शक्तियोंका वेगसे ऊर्ध्वगमन होने लगना ।
साथ ही इस छुटकारेका अभिप्राय उस सूर्यकी पुनःप्राप्ति भी है जगे अन्धकारमें छिपा पड़ा था, क्योंकि यह कहा गया है कि सूर्य अर्थात् दिव्य सत्य, ''सत्यं तत्'', ही वह वस्तु थी, जिसे इन्द्र और अंगिरसोंने पणियोकी गुफामें पाया था । उस गुफाके विदीर्ण हो जानेपर दिव्य उषाकी गौएँ जो सत्यकी सूर्यकी किरणें हैं आरोहण करके सत्ताकी पहाड़ीके ऊपर जा पहुँचती है, और सूर्य स्वयं दिव्य सत्ताके प्रकाशमान ऊर्ध्व समुद्रमें ऊपर चढ़ता है, जो विचारक हैं वे जलमें जहाजकी तरह इस ऊर्ध्व समुद्रमें ३२३ सूर्यको आगे-आगे ले जाते हैं जबतक कि वह इसके दूरवर्ती परले तटपर नहीं पहुँच जाता ।
पणि जो गौओंको कैद कर लेनेवाले हैं, जो निम्न गुफाके अधिपति हैं, दस्युओंकी एक श्रेणीमेंके हैं, जो दस्यु वैदिक प्रतीकवादमें आर्य देवों और आर्य द्रष्टाओं तथा कार्यकर्ताओंके विरोधमें रखे गये हैं । आर्य वह है जो यज्ञका कार्य करता है, प्रकाश का पवित्र शब्द प्राप्त करता है, देवोंको चाहता है और उन्हें बढ़ाता है तथा स्वयं उनसे बढ़ाया जाकर सच्चे अस्तित्वकी विशालता प्राप्त करता है; वह प्रकाशका योद्धा है और सत्यका यात्री है । 'दस्यु' है अदिव्य सत्ता जो किसी प्रकारका यज्ञ नहीं करती, दौलतको बटोर-बटोरकर जमा तो कर लेती है, पर उसका ठीक प्रकार उपयोग नहीं कर सकती, क्योंकि वह शब्दको नहीं बोल सकती या पराचेतन सत्यको मनोगत नहीं कर सकती, शब्दसे, देवों से और यज्ञसे द्वेष करती है और अपना कुछ भी उच्च सत्ताओंको नहीं देती, बल्कि आर्यकी संपदाको उससे लूट लेती है और अपने पास रोक रखती है । वह चोर है, शत्रु है, भेड़िया है, भक्षक है, विभाजक है, बाधक है, अवरोधक है । दस्यु अन्धकार और अज्ञानकी शक्तियाँ हैं जो सत्य तथा अमरत्वके अन्वेष्टाका विरोध करती हैं । देव हैं प्रकाशकी शक्तियाँ, असीमता (अदिति ) के पुत्र, एक परम देवके रूप और व्यक्तित्व जो अपनी सहायताके द्वारा तथा मनुष्यके अन्दर अपनी वृद्धि और मानुष व्यापारोंके द्वारा मनुष्यको ऊँचा उठाकर सत्य और अमरतातक पहुँचा देते हैं ।
इस प्रकार आंगिरस-गाथाका स्पष्टीकरण हमें वेदके सम्पूर्ण रहस्यकी कुञ्जी पकड़ा देता है । क्योंकि वे गौएँ और घोड़े जो आर्योंसे खो गये थे और जिन्हें उनके लिये देवोंने फिरसे प्राप्त किया, वे गौएँ और घोड़े जिनका इन्द्र स्वामी और प्रदाता है और वस्तुत: स्वयं गौ और घोड़ा है यदि भौतिक पशु नहीं हैं, यज्ञ द्वारा चाही गयी संपदाके ये अंग यदि आध्यात्मिक सम्पत्तियोंके प्रतीक हैं तो इसी प्रकार इसके अन्य अंग पुत्र, मनुष्य, सुवर्ण, खजाना आदि भी जो सदा इनके साथ सम्बद्ध आते हैं, इन्हीं अर्थोमें होने चाहिये । यदि गौ जिससे 'घृत' पैदा होता है कोई भौतिक गाय नहीं है, बल्कि जगमगानेवाली माता है तो स्वयं घृतको भी जो जलोंमें पाया गया है और जिसके लिये यह कहा गया है कि पणियोने उसे गौके अन्दर त्रिविध रूपमें छिपा दिया था, भौतिक हवि नहीं होना चाहिये; न ही सोमका मघू-रस भौतिक हवि हो सकता है जिसके विषुयमें यह भी कहा गया है कि वह नदियोंमें होता है समुद्रसे एक मधुमय लहरके ३२४ रूपमें उठता है तथा ऊपर देवोंके प्रति धारारूपमें प्रवाहित होता है । और यदि ये प्रतीकरूप हैं तो यज्ञकी अन्य हवियोंको भी प्रतीकरूप ही होना चाहिये; स्वयं बाह्य यज्ञ भी एक आन्तर प्रदानके अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता । और यदि अंगिरस् ऋषि भी अंशत: प्रतीकरूप हैं या देवोंकी तरह यज्ञमें अर्ध-दिव्य कार्यकर्ता और सहायक हैं तो वैसे ही मृगुगण, अथर्व-गण (अथर्वाण: ), उशना और कुत्स तथा अन्य होने चाहियें जो उनके कार्यमें उनके साथ सम्बद्ध आते हैं । यदि अंगिरसोंकी गाथा तथा दस्युओंके साथ युद्धकी कहानी एक रूपक है, तो वैसा ही अन्य आख्यायिकाओं-को भी होना चाहिये जो ऋग्वेदमें उस सहायताके विषयमें पायी जाती हैं जो दानवोंके विरुद्ध लडाईमें ऋषियोंको देवों द्वारा प्रदान की गयी थी, क्योंकि वे आख्यायिकाएँ भी उन्हीं जैसे शब्दोंमें वर्णित की गयी हैं और वैदिक कवियोंने उन्हें सतत रूपसे अंगिरसोंके कथानकके साथ इस तरह एक श्रेणीमें रखा है जैसे कि ये इनके समान आधारवाली हों ।
इसी प्रकार ये दस्यु जो दान और यज्ञका निषेध करते हैं और शब्दसे तथा देवोंसे द्वेष करते हैं और जिनके साथ आर्य निरन्तर युद्धमें संलग्न रहते हैं, ये वृत्र, पणि व अन्य यदि मानवीय शत्रु नहीं है बल्कि अन्धकार, अनृत और पापकी शक्तियाँ हैं, तो आर्योंकि युद्धोंका, आर्य-राजाओंका तथा आर्योंकी जातियोंका सारा विचार आध्यात्मिक प्रतीक और आध्यात्मिक उपाख्यानका रूप धारण करने लगता है । वे अविकल रूपमें ऐसे हैं या केवल अंशत: ही-यह अपेक्षाकृत अधिक व्यौरेवार परीक्षाके बिना निर्णीत नहीं किया जा सकता, और यह परीक्षा इस समय हमारा उद्देश्य नहीं है । हमारा वर्तमान उद्देश्य केवल यह देखना है कि हम जो इस विचारको लेकर चले हैं कि वैदिक-सूक्त प्राचीन भारतीय रहस्यवादियोंकी प्रतीकात्मक पवित्र पुस्तकें हैं और उनका अभिप्राय आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक है--अपने इस विचारकी पुष्टिके लिये हमारे पास प्राथमिक पर्याप्त सामग्री है या नहीं । इस प्रकारकी पर्याप्त प्राथमिक सामग्री विद्यमान है यह हमने स्थापित कर दिया है, क्योंकि अबतक हमने जितना विचार-विवेचन किया है उससे ही हमारे पास इसके लिये पर्याप्त आधार है कि वेदके पास हमें गंभीरताके साथ इसी दृष्टिकोणको लेकर पहुँचना चाहिये और कि वेद भावनामय काव्यमें लिखे गये इसी प्रकारके प्रतीकवादके ग्रंथ हैं इस दृष्टिको ही सामने रखकर इनकी व्यौरेवार व्याख्या करनी चाहिये ।
तो भी अपने पक्षको पूर्णतया सुदृढ़ करनेके लिये यह अच्छा होगा कि वृत्र तथा जलों-सम्बन्धी दूसरी सहचरी गाथाकी भी परीक्षा कर ली ३२५ जाय जिसे हमने अंगिरसों तथा प्रकाशकी गाथाके साथ इतना निकट रूपसे सम्बद्ध पाया है। इस सम्बन्धमें पहली बात यह है कि वृत्रहन्ता 'इन्द्र', अग्निके साथ, वैदिक विश्वदेवतागणके मुख्य दो देवताओंमेंसे एक है और उसका स्वरूप तथा उसके व्यापार यदि समुचित रूपसे निर्धारित हो सकें तो आर्योंके देवोंका सामान्य रूप सुदृढ़तया नियत हो जायगा । दूसरे यह कि मरुत् जो इन्द्रके सखा हैं, पवित्र गानके गायक हैं, वैदिक पूजाके विषयमें प्रकृतिवादी मतके सबसे प्रबल साधक-बिन्दु हैं; वे निःसन्देह आँधीके देवता हैं और अन्य बड़े-बड़े वैदिक देवोंमेंसे दूसरे किसीका भी, अग्निका या मित्र-वरुणका या त्वष्टाका और वैदिक देवियोंका या यहांतक कि सूर्यका भी या उषाका भी ऐसा कोई प्रख्यात भौतिक स्वरूप नहीं है । यदि इन आंधीके देवताओंके विषयमें यह दर्शाया जा सके कि ये एक आध्यात्मिक स्वरूप और प्रतीकवादको रखे हुए हैं तब वैदिक-धर्म तथा वैदिक कर्मकाण्ड के गम्भीरतर अभिप्रायके सम्बन्धमें कोई सन्देह अवशिष्ट नहीं रह सकता । अन्तिम बात यह कि वृत्र और उससे सम्बद्ध दानवों, शुष्ण, नमुचि आदिकी निकट रूपसे परीक्षा करनेपर यदि पता चले कि ये आध्यात्मिक अर्थमें दस्यु हैं तथा यदि वृत्र द्वारा रोके जानेवाले आकाशीय (दिव्य ) जलोंके अभिप्रायका और अधिक गहराईमें जाकर अनुसन्धान किया जाय तब यह विचार कि वेदमें ऋषियों और देव तथा दानवोंकी कहानियाँ रूपक हैं एक निश्चित आरम्भ-बिंदुको लेकर चलाया जा सकता है और वैदिक लोकोंका प्रतीकवाद एक सन्तोषजनक व्याख्याके अधिक समीप लाया जा सकता है ।
इससे अधिक प्रयत्न करना इस समय हमारे लिये संभव नहीं; क्योंकि वैदिक प्रतीकवाद जैसा कि सूक्तोंमें प्रपञ्चित किया गया है अपने अंग-उपांगोंमें अत्यधिक पेचीदा है, अपने दृष्टि-बिन्दुओंमें अत्यधिक विविधता रखता है, अपनी प्रतिच्छायाओंमें और अवान्तर निर्देशोंमें व्याख्या करने-वालेके लिये अत्यन्त अधिक अस्पष्टताओं तथा कठिनाइयोंको उपस्थित करता है और सबसे बढ़कर यह कि विस्मृति और अन्यथाग्रहणके पिछले युगों द्वारा यह इतना अधिक धुँधला हो चुका है कि एक ही पुस्तकमें इसपर समुचितरूपसे विचार कर सकना शक्य नहीं । इस समय हम इतना ही कर सकते हैं कि मुख्य-मुख्य मूलसूत्र ढ़ूँढ़ निकालें और जहांतक हो सके उतना सुरक्षित रूपमें ठीक-ठीक आधारोंको स्थापित कर दें ।
३२६
|